हमने आज ये दुनियां बेची .... और दीन खरीद लाये ... बात क़ुफ़्र की ,की है हमने ... सपनों का इक थान बुना था.... गज़ एक कपड़ा फ़ाड़ लिया ... और उम्र की चोली सी ली हमने .... अंबर की इक पाक सुराही ... बादल का इक जाम उठाकर ... घूँट चांदनी पी है हमने ....हमने आज ये दुनिया बेची। ........ मैं औरत थी चाहे बच्ची सी और ये ख़ौफ़ विरासत में पाया था कि दुनिया के भयानक जंगल से मैं अकेली नहीं गुज़र सकती ,और शायद इसी समय में से अपने साथ के लिये मर्द मुहँ की कल्पना करना मेरी कल्पना का अंतिम साधन था.... पर इस मर्द शब्द के मेरे अर्थ कहीं भी पढ़े ,सुने , या पहचाने हुए अर्थ नहीं थे।
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