मैं जब रोमानिया से बल्गारिया जा रही थी ,रात बहुत ठंडी थी ,पास में अपने कोट के सिवाय कुछ नहीं था ,वही घुटने जोड़ कर ऊपर तान लिया था ,फिर भी जब उसे सर करर और खींचती थी ,तो पैरों में ठिठुरन लगती थी। न जाने कब मुझे नींद आ गयी। लगा ,सारे शरीर में गर्मी आ गयी हैं। बाकी रात खूब गर्माइश में सोती रही .......
नायक को जानती हूँ ,उस दिन से ,जिस दिन उसे साधुओं के एक डेरे में चढ़ाया गया था। बहुत बरसों की बात ,पर अब भी ध्यान आ जाती है ,तो बहुत तराशे हुए नक़्श वाला उसका सांवला चेहरा ,उसकी सारी उदासी के समेत आँखों के सामने आ जाता है
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