दुखों की कहानियां कह -कहकर लोग थक गए थे ,पर ये कहानियां उम्र से पहले ख़त्म होने वाली नहीं थीं। मैंने लाशें देखी थीं ,लाशों जैसे लोग देखे थे ,और जब लाहौर से आकर देहरादून में पनाह ली ,तब नौकरी की और दिल्ली में रहने के लिए जगह की तलाश में दिल्ली आयी ,और जब वापसी का सफर कर रही थी ,तो चलती हुई गाड़ी में ,नींद आंखों के पास नहीं फाटक रही थी.....
गाड़ी के बाहर घोर अँधेरा समय के इतिहास के सामान था। हवा इस तरह सांय- सांय कर रही थी ,जैसे इतिहास के पहलू में बैठकर रो रही हों। बाहर ऊंचे- ऊंचे उनके पेड़ दुखों की तरह उगे हुए थे। कई जगह पेड़ नहीं होते थे ,केवल एक वीरानी होती थी ,और इस वीरानी के टीले ऐसे प्रतीत होते थे,जैसे टीले, नहीं क़ब्रें हों।
वारिस शाह की पंक्तियाँ मेरे ज़हन में घूम रही थीं ---'भला मोये ते बिछड़े कौन मेले.....'
रसीदी टिकट पाठ 9 नफरत का एक दायरा ,पाठ 10 --1947
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