मैं जब रोमानिया से बल्गारिया जा रही थी ,रात बहुत ठंडी थी ,पास में अपने कोट के सिवाय कुछ नहीं था ,वही घुटने जोड़ कर ऊपर तान लिया था ,फिर भी जब उसे सर करर और खींचती थी ,तो पैरों में ठिठुरन लगती थी। न जाने कब मुझे नींद आ गयी। लगा ,सारे शरीर में गर्
यह मेरी ज़िन्दगी में पहला समय था, जब मैंने जाना कि दुनिया में मेरा भी कोइ दोस्त है, हर हाल में दोस्त ,और पहली बार जाना कि कविता केवल इश्क़ के तूफ़ान से ही नहीं निकलती ,यह दोस्ती के शांत पानियों में से भी तैरती हुई आ सकती है। उस रात को उसने नज़्म
.गर्मी हो या सर्दी मैं बहुत से कपडे पहन कर नहीं सो सकती। सो रही थी ,जब यह फोन आया था। उसी तरह रजाई से निकल कर फोन तक आयी थी। लगा ,शरीर का मांस पिघल कर रूह में मिल गया है ,और मैं प्योर नेकेड सोल वहां खड़ी हूँ.......उस रेतीले स्थान पर दो तम्
समरकंद में मैंने भी ऐसी ही बात वहां के लोगों से पूछी थी कि आपका इज़्ज़त बेग़ जब हमारे देश आया और उसने एक सुन्दर कुम्हारन से प्रेम किया ,तो हमने में कई गीत लिखे। क्या आपके देश में भी उसके गीत हैं ? तो वहां एक प्यारी सी औरत ने जवाब दिया ,हमारे
इथोपिया के प्रिंस का मन छलक उठा "आप कवि लोग भाग्यशाली हैं वास्तविक संसार नहीं बसता तो कल्पना का संसार बसा लेते हैं ,मैं बीस बरस वॉयलान बजाता रहा ,साज़ के तारों से मुझे इश्क़ है ,पर युद्ध के दिनों में मेरे दाहिने हाथ में गोली लग गयी
टॉलस्टॉय की एक सफ़ेद कमीज़ टंगी हुई है। पलंग की पट्टी पर मैं एक हाथ रखे खड़ी थी कि ....... दाहिने हाथ की खिड़की से हल्की सी हवा आयी ..... और ुउस टंगी हुई कमीज की बांह मेरी बांह से छू गयी ..... एक पल के लिए जैसे समय की सूईयाँ पीछे लौट गयीं , 1966 से
अजीब अकेलेपन का एहसास है। हवाई जहाज़ की खिड़की से बाहर देखते हुए अच्छा लगता है ,जैसे किसी ने आसमान को फाड़कर उसके दो भाग कर दिए हों। प्रतीत होता है -- फटे हुए आसमान का एक भाग मैंने नीचे बिछा लिया है ,और दूसरा अपने ऊपर ओढ़ लिया है सोफ़िया के हवाई
हमने आज ये दुनियां बेची .... और दीन खरीद लाये ... बात क़ुफ़्र की ,की है हमने ... सपनों का इक थान बुना था.... गज़ एक कपड़ा फ़ाड़ लिया ... और उम्र की चोली सी ली हमने .... अंबर की इक पाक सुराही ... बादल का इक जाम उठाकर ... घूँट चांदनी पी है हमने ....ह
छोटी-छोटी कहानियां, वो कहानियां जो हम पढ़ते है सोशल मीडिया के बड़े बड़े प्लेटफ़ॉर्मस पर, छोटी छोटी कहानियां हमारे जीवन का आईना होती हैं ,इनमें हमारा अक्स दिखता है। छोटी छोटी कहानियां हमें बड़ी बड़ी सीख दी जाती हैं। सुनिये छोटी सी कहानी "खुशियों भरी प
एक सपना और था जिसने मेरी उठती जवानी को अपने धागों में लपेट लिया था। हर तीसरी या चौथी रात देखती थी कोइ दो मंज़िला मकान है, वो बिलकुल अकेला ,आसपास कोइ बस्ती नहीं ,चारो ओर जंगल है और जहाँ वो मकान है उसके एक तरफ नदी बहती है...... नदी की ओर उस मक
सिकंदर (Alexander The Great) का दबदबा पूरी दुनियां में कायम था।विश्व विजेता का सपना देखने वाला सिकंदर एक बहादुर और कुशल योद्धा था। तमाम युद्धों में उसने अपनी वीरता का परिचय दिया लेकिन जब उसे अपनी स्वयं की मृत्यु हो जाने का आभास हुआ तो वो डर
सोशल मीडिआ पर रोज़ाना ऐसी कई कहानियां हमारी नज़रों के सामने से गुज़रती है जो हमे जीवन की कड़वी सच्चाई से रूबरू करती हैं और अंदर तक झकझोर देती हैं , ऐसी ही कहानी है "अंतिम दर्शन "चारो और विषैली गंध फ़ैली थी .. भीड़ मुँह ढके सारा मंज़र चुपचाप देख
महारानी एलिज़ाबेथ जिस युवक से मन ही मन प्यार करती हैं ,उसे जब समुद्री जहाज़ देकर काम सौंपती हैं ,तो दूरबीन लगाकर जाते हुए जहाज़ को देखकर परेशान हो जाती हैं । देखती हैं कि नौजवान प्रेमिका भी जहाज़ पर उसके साथ है। वे दोनों डैक पर खड़े हैं ,उस समय म
किसी बहुत ऊंची ईमारत के शिखर पर मैं अकेले खड़े हो कर अपने हाथ में लिए हुए कलम से बातें कर रही थी --- 'तुम मेरा साथ दोगे ? --कितने समय मेरा साथ दोगे ?'अचानक किसी ने कसकर मेरा हाथ पकड़ लिया। 'तुम छलावा हो ,मेरा हाथ छोड़ दो।' मैंने कहा , और ज़ोर
कहते हैं एक औरत थी। उसने बड़े सच्चे मन से किसी से मोहब्बत की। एक बार उसके प्रेमी ने उसके बालों में लाल गुलाब का फूल अटका दिया। तब औरत ने मोहब्बत के बड़े प्यारे गीत लिखे। 'वह मोहब्बत परवान नहीं चढ़ी। उस औरत ने अपनी ज़िंदगी समाज के गलत मूल्यों पर
लाहौर में जब कभी साहिर मिलने के लिए आता था ,तो जैसे मेरी ही ख़ामोशी में से निकला हुआ खामोशी का एक टुकड़ा कुर्सी पर बैठता था और चला जाता था..... वह चुपचाप सिगरेट पीता रहता था ,कोई आधी सिगरेट पी कर राखदानी में बुझा देता था ,फिर नयी सिगरेट सुलगा ल
दुखों की कहानियां कह -कहकर लोग थक गए थे ,पर ये कहानियां उम्र से पहले ख़त्म होने वाली नहीं थीं। मैंने लाशें देखी थीं ,लाशों जैसे लोग देखे थे ,और जब लाहौर से आकर देहरादून में पनाह ली ,तब नौकरी की और दिल्ली में रहने के लिए जगह की तलाश में दिल्ली आ
एक लंबा और सांवला सा साया था ,जब मैंने चलना सीखा ,तो मेरे साथ साथ चलने लगा। एक दिन वो आया ,तो उसके हाथ में एक काग़ज़ था ,उसकी नज़्म का। उसने नज़्म पढ़ी और वो काग़ज़ मुझे देते हुए जाने क्यों उसने कहा --" इस नज़्म में जिस जगह का ज़िक्र है ,वो जगह मैंने
सुरेंद्र दिल ही दिल में बहुत ख़फ़ीफ़ हो रहा था,उसने एक बार बुलंद आवाज़ में उस लड़की को पुकारा ,"ए लड़की !"लड़की ने फिर भी उसकी तरफ न देखा. झुंझला कर उसने अपना मलमल का कुरता पहना और नीचे उतरा।जब उस लड़की के पास पहुंचा तो वो उसी तरह अपनी नंगी पिंडली ख
ख़ुदा की जिस साज़िश ने यह सोलहवां वर्ष किसी अप्सरा की तरह भेज कर मेरे बचपन की समाधि भंग की थी, उस साज़िश की मैं ऋणी हूँ,क्योंकि उस साज़िश का संबंध केवल एक वर्ष से नहीं था, मेरी सारी उम्र से है।----अमृता प्रीतम,{रसीदी टिकट,---पाठ-6 ,सोलहवाँ साल---
बाहर जब शारीरिक तौर पर मेरी बचकानी उम्र उनके पितृ -अधिकार से टक्कर न ले सकती ,तब मैं आलथी -पालथी मार के बैठ जाती ,आँखें मीच लेती ,पर अपनी हार को अपने मन का रोष बना लेती ---'आँख मीच कर अगर मैं ईश्वर का चिंतन न करूँ ,तो पिता जी मेरा क्या कर लें
केदार शर्मा हिंदी फिल्म जगत की नीव का पत्थर कहे जाते हैं। मूक फिल्मों के दौर से लेकर सन 1990 दशक तक हिंदी सिनेमा के हर दौर के साक्षी रहे केदार शर्मा फिल्मों के हर पक्ष के जानकार थे। अभिनेता ,फिल्म निर्माता- निर्देशक लेखक और गीतकार केदार शर्मा ब
ये एक वह पल है .... ...... रसोई में नानी का राज होता था ,सबसे पहला विद्रोह मैंने उसी के राज में किया ........ न नानी जानती थी न मैं , की बड़े होकर ज़िन्दगी के कई बरस जिससे मैं इश्क़ करुँगी वह उसी मज़हब का होगा ,जिस मज़हब के लोगों के लिए घर के बर्त
क्या ये क़यामत का दिन है ? ..... ज़िन्दगी के कई पल जो वक़्त की कोख से जन्मे ,और वक़्त की क़ब्र में गिर गए ,आज मेरे सामने खड़े हैं ⋯ये सब क़ब्रें कैसे खुल गईं ?..... और ये सब पल जीते जागते क़ब्रों में से कैसे निकल आये ? .... ये ज़रूर क़यामत का दिन है ..
ज़िन्दगी जाने कैसी किताब है......जिसकी इबारत अक्षर-अक्षर बनती है ..... ,और फिर अक्षर-अक्षर टूटती . .बिखरती.. और बदलती है .... और चेतना की एक लम्बी यात्रा के बाद एक मुकाम आता है ,जब अपनी ज़िंदगी के बीते हुए काल का .. उस काल के हर- हादसे का . ..